‘आह’ से ‘आहा’ तक का सफर

जब तक हम जागरूक नागरिक नहीं बनेंगे, हमारा शोषण होता रहेगा। नेता और अधिकारी, दोनों ही हमारा शोषण करते रहेंगे और हम व्यवस्था को दोष देते रहेंगे। हम चिढ़ेंगे, कुढ़ेंगे पर विरोध नहीं करेंगे। अव्यवस्था, गरीबा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन की चक्की में पिसते हुए ‘आह-आह’ करते रहेंगे।

लोकसभा के चुनाव अगले वर्ष होंगे लेकिन उससे पहले इसी वर्ष अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिज़ोरम के विधान सभा चुनाव संपन्न होंगे और इन राज्यों के मतदाता अपनी पसंद जाहिर कर देंगे। ये चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे अंदाजा हो जाएगा कि विपक्षी दलों के महागठबंधन और भाजपा की रणनीति में से किसकी विजय होगी और हवा का रुख क्या है? इससे यह अंदाजा लगाना आसान हो जाएगा कि लोकसभा चुनाव में किस दल अथवा गठबंधन के सत्ता में आने के अवसर अधिक हैं।

चुनावों का दौर, वायदों का दौर होता है। राजनेता बहुत से वायदे करते हैं, देश को स्वर्ग बना देने का आश्वासन देते हैं। कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही है। न केवल मोदी को प्रधानमंत्री बने साढ़े चार साल हो गए हैं बल्कि बहुत से राज्यों में भाजपा भी लंबे समय से सत्ता में है। भाजपा समेत सभी दल इन राज्यों को स्वर्ग में बदल देने का आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन हम तो अभी तक यही नहीं समझ पाए कि स्वर्ग कहां है जिसे ये राजनेता धरती पर ले आने का आश्वासन देते हैं। दरअसल हम तो उस सुबह के इंतज़ार में हैं जब इन राजनेताओं के वादे वफा होंगे। पर हां, हमें पूरा विश्वास है कि यदि हम खुद जागरूक हुए तो वह सुबह जरूर आएगी। वायदे बहुत हैं, उम्मीदें भी बहुत हैं तो इन उम्मीदों के सिलसिले पर नज़रसानी हो जाए। आइए, इन विधानसभा चुनावों के बहाने देश की बात हो जाए!

काश, ऐसा हो कि हमारा गणतंत्र एक शिक्षित, सुरक्षित, विकसित, स्वस्थ और समृद्ध गणतंत्र बन जाए! जहां तंत्र, गण के लिए हो, गण की सेवा के लिए हो, तो वह ‘पब्लिक का रिपब्लिक’ होगा, ‘गण का तंत्र’ होगा और सही मायनों में गणतंत्र होगा। काश कि हमारा देश एक विकसित देश हो, जहां सबके लिए रोज़गार हो, जीवनयापन की सुविधाएं हों, सुचारू परिवहन व्यवस्था हो, नागरिकों को अपने काम करवाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर न काटने पड़ें और रिश्वत न देनी पड़े, इन्फ़्रास्ट्रक्चर ऐसा हो कि अनाज बाहर सड़े नहीं और किसान को अपनी मेहनत का जायज मुआवज़ा मिले, जहां किसानों और मज़दूरों को कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या न करनी पड़े। ‘गण का तंत्र’  यानी लोग स्वस्थ हों, स्वास्थ्य सेवाएं किफायती ही नहीं, दक्ष भी हों। ‘गण का तंत्र’ यानी भोजन के लिए किसी को चोरी न करनी पड़े, लोगों को नौकरी खोने का डर न सताए, व्यापार-उद्योग फलें-फूलें, टैक्स इतना तर्कसंगत हो कि टैक्स चोरी न हो, शोध-कार्य फले-फूले, बुढ़ापा सुरक्षित हो। कानूनों के जंगल से छुटकारा मिले, कानून सरल हों और सबकी समझ में आते हों, न्याय सस्ता हो, सुलभ हो, जनहितकारी नीतियां हों और नियम-कानून बनाने में जनता की भागीदारी हो। ऐसा हो जाए तो तब होगा एक शिक्षित, सुरक्षित, सुविकसित, स्वस्थ और समृद्ध भारत, जिसे हम कह सकेंगे ‘गण का तंत्र’ यानी ‘पब्लिक का रिपब्लिक’ !

इसमें कोई शक नहीं है कि देश ने बहुत प्रगति की है परंतु प्रगति के सारे कीर्तिमानों के बावजूद हमारी स्वतंत्रता अधूरी है क्योंकि जनता का अधिकांश भाग अब भी वंचितों की श्रेणी में शुमार है। बहुलता और अभाव के बीच की यह खाई हमारे लोकतंत्र को ‘मजबूत लोकतंत्र’ नहीं बनने देती और हमारा लोकतंत्र एक ‘मजबूर लोकतंत्र’ बन कर रह गया है। मैं हमेशा से यह कहता आया हूं कि अब हमें देश में ऐसे कानूनों की आवश्यकता है जिससे गणतंत्र में तंत्र के बजाए गण की महत्ता बढ़े। ऐसे कुछ संभावित कानूनों की चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी। सरकार कोई भी आए, ये कानून जनहित को बढ़ावा देें।

न्यायपालिका के कामकाज में सुधार के लिए ‘न्यायिक मानकीकरण एवं उत्तरदायित्व विधेयक’, जनहित में विभिन्न घोटालों का पर्दाफाश करने वाले ह्विसल ब्लोअर्स के लिए ‘जनहित कार्यकर्ता सुरक्षा विधेयक’, सरकारी कर्मचारियों द्वारा जनता के काम सही समय पर होने को सुनिश्चित करने के लिए ‘जनसेवा विधेयक’, नए बनने वाले कानूनों में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ‘जनमत विधेयक’,  किसी अप्रासंगिक अथवा गलत कानून को जनता द्वारा निरस्त करवा पाने के लिए ‘जनाधिकार विधेयक’ तथा जनता के मनपसंद का कोई नया कानून बनाने के लिए ‘जनप्रिय विधेयक’ लाए जाने चाहिए।

फिलहाल हम भ्रष्टाचार में डूबी शासन व्यवस्था और झूठ के सहारे चलने वाले राजनीतिज्ञों को झेल रहे हैं। अपनी-अपनी सरकारों की उपलब्धियों का बखान, गरीबी मिटाने के वायदे और नाकामयाबियों के लिए नए-नए बहाने सुनकर हमारे कान पक गए हैं। स्वतंत्रता के बाद भ्रष्ट और निकम्मे राजनीतिज्ञों ने नौकरशाहों को इस हद तक भ्रष्ट बना दिया है कि वे नासूर बन गए हैं। माफियाओं के सहारे चलती सरकारें, बेलगाम नौकरशाही, कानून को जेब में रखकर चलने वाले पूँजीपति और ठेकेदार, अक्षम न्याय व्यवस्था और बिका हुआ मीडिया हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गए हैं और इन सबके बीच पिसते हुए हम ‘आह-आह’ करते जी रहे हैं।

आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है। उनमें समर्थ वर्ग भी शामिल हैं। सरकार के पास नौकरियां नहीं हैं और व्यापार चलाना तो दूर की बात, शुरू करने में भी इतनी अड़चनें हैं कि किसी उद्यमी का आधा उत्साह तो शुरू में ही काफूर हो जाता है। हमारी कर-प्रणाली अतर्कसंगत और उद्यमिता-विरोधी है। सवाल यह है कि हम कब तब ‘आह-आह’ करते जीते रहेंगे? अब हमें ‘आह’ से ‘आहा’ तक के सफर के लिए तैयार होना है।

यह समझना आवश्यक है कि ‘आह’ से ‘आहा’ तक के सफर की तैयारी क्या हो। यह तैयारी ‘जागरूकता’ है। हम खुद भी जागें और अपने आस-पास के लोगों में जागरूकता का भाव जगाएं। ज्यादातर भारतीय एक ग्राहक के रूप में भी जागरूक नहीं हैं। हम अपने अधिकारों से अनजान हैं। हम शिकायत नहीं करते, शिकायत कर लें तो पीछे नहीं पड़ते। अपने कर्तव्यों और अधिकारों से अनजान रहकर हम रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में ऐसे फंसे हैं कि उस जाल से बाहर आने का उपाय ही नहीं सूझता।

देश के विकास की दो अनिवार्य आवश्यकताएं हैं- जिम्मेदार नागरिक और जनसंवेदी प्रशासन। जनसंवेदी प्रशासन तभी आएगा जब हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और पार्टी के नाम पर वोट देने के बजाए उम्मीदवार की खामियों और खूबियों तथा उसके काम-काज के आधार पर वोट दें और जनप्रतिनिधियों पर मतदाताओं का इतना दबाव हो कि वे जनसंवेदी प्रशासन लाने के लिए विवश हो जाएं।

एक ज़माना था जब कहा जाता था- ‘यथा राजा, तथा प्रजा’। यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा भी वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदले, शासन के तरीके बदले और एक दिन के लिए ही सही, जनता जनप्रतिनिधियों की भाग्य-विधाता हो गई। अब स्थिति यह है कि ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ की उक्ति सटीक हो गई है। यानी यदि जनता जागरूक नहीं होगी तो जनप्रतिनिधि भी निकम्मे और भ्रष्ट हो जाएंगे। यह स्वयंसिद्ध है कि ‘आह से आहा’ तक के सफर के लिए जनता को ही जागरूक होना होगा, अपने कर्तव्यों और अधिकारों को समझना होगा और आरक्षण की नहीं, अधिकारों की लड़ाई लड़नी होगी, तभी देश में सक्षम लोकतंत्र आएगा और सही अर्थों में गणतंत्र बनेगा। आशा की जानी चाहिए कि ऐसा शीघ्र हो!