फ्रेडरिक बास्टिएट का प्रसिद्ध व्यंग्य- ‘याचिका रोशनी करने वालों की’

फ्रेडरिक बास्टिएट के बहुचर्चित व्यंग्य ‘कैंडलस्टिक मेकर्स पिटिशन’ का हिंदी अनुवाद यहां आपके लिए दिया गया है। आज आप पढ़ेंगे इसका पहला भाग- ‘याचिका रोशनी करने वालों की’

फ्रेडरिक बास्टिएट ने समय-समय पर अपने लेखों से सरकार की गलत नीतियों पर प्रहार किया। वे उदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्षधर और मुक्त व्यापार व्यवस्था के समर्थक थे। वे सरकार की उद्योगों को संरक्षण देने वाली नीति को निर्माताओं और उपभोक्ताओं दोनों के लिए घातक मानते थे। उनके अनुसार सरकार को उद्योगों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। बास्टिएट ने हमेशा उपभोक्ताओं यानी आम लोगों के हित की बात की। बास्टिएट ने सन 1845 में प्रकाशित अपने निबंध-संग्रह ‘इकोनॉमिक सोफ़िज़्म’ में एक व्यंग्य ‘कैंडलस्टिक मेकर्स पिटिशन’ (याचिका रोशनी करने वालों की) के माध्यम से कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने वाली फ्रांस सरकार की संरक्षणवादी नीतियों पर जम कर विरोध किया है।

‘याचिका रोशनी करने वालों की’- इस व्यंग्य में बास्टिएट ने एक याचिका तैयार की है जिसमें फ्रांस के रोशनी उद्योग से जुड़े हर उत्पादक को शामिल किया गया है। फ्रांसीसी सरकार से इन उत्पादकों ने रोशनी के एक बाहरी सप्लायर से मिल रही अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाने की अपील की – यह प्रतिस्पर्धी था- ‘सूरज’। यानी अगर सूरज के कारण उद्योगों को नुकसान होता है तो क्या सरकार सूरज की रोशनी लेने से मना कर देगी? इस हास्यास्पद तर्क के जरिए यहां बास्टिएट यह समझाना चाहते हैं कि अगर कोई विदेशी वस्तु हमारे देशी वस्तु की लागत की तुलना में सस्ती पड़ती है तो उसका आयात करने में कोई हर्जा नहीं है। बास्टिएट की बातें आज भी तर्कसंगत हैं,  जैसा कि आज भी भारत के अलावा कई देशों में स्वदेशी उद्योगों को बचाए रखने के लिए सस्ती विदेशी वस्तुओं के आयात पर या तो पाबंदी है या उन पर आयात शुल्क बहुत अधिक है।

किसी याचिका की शैली में लिखे गए इस व्यंग्य में बास्टिएट ने एक सिद्धहस्त अर्थशास्त्री की तरह लाजवाब कर देने वाले तर्क दिए हैं ही साथ ही उनके अंदर के एक प्रतिभाशाली लेखक के भी दर्शन होते हैं। व्यंग्य की चाशनी में डुबो कर बड़ी विनम्रता से उन्होंने फ्रांस के जूली राजतंत्र के चेम्बर्स ऑफ डेप्यूटीज़ को अपनी याचिका में संबोधित किया है। आप भी पढ़िए यह याचिका-

याचिका

एक याचिका रोशनी (लाइटिंग) संबंधी लगभग सभी उत्पादों जिनमें मोमबत्तियां, छोटी बत्तियां, लालटेन, स्ट्रीट लैम्प, माचिस और अग्निशामकों और बत्ती के गुल हटाने वालों (स्नफर्स) के निर्माताओं की ओर से तथा चरबी, तेल, रेज़ीन, अल्कोहल आदि के उत्पादकों की ओर से…

फ्रांसीसी संसद को खुला पत्र, मूल रूप से 1845 में प्रकाशित-

प्रति,

चेम्बर ऑफ डेप्यूटीज़ के मानद सदस्य!

आप बिल्कुल सही रास्ते पर चल रहे हैं। आप अमूर्त सिद्धांतों को खारिज कर देते हैं और भरपूर माल और कम कीमतों के लिए आपके दिल में जरा भी सम्मान नहीं। आपको तो केवल उत्पादकों के भाग्य में ही दिलचस्पी है। आप घरेलू उद्योग  को घरेलू बाजार  के लिए ही आरक्षित रख कर आप उसे विदेशी प्रतिस्पर्धा से आज़ादी दिलाना चाहते हैं।

हम आपको एक शानदार मौका देने आए हैं- हम इसे क्या कहेंगे? आपका सिद्धांत? नहीं, ‘सिद्धांत’ शब्द से ज्यादा कुछ भ्रामक नहीं है। आपका मत? आपकी प्रणाली? आपका आदर्श? लेकिन आप मतों को नापसंद करते हैं, आपका सिस्टम भयावह है और जहां तक सिद्धांत की बात है तो आप राजनीतिक अर्थव्यवस्था में सिद्धांत को ही खारिज़ करते हैं। तो हम कहेंगे कि आपकी कामकाज की पद्धति ऐसी है जिसमें न तो कोई सिद्धांत है और न ही कोई आदर्श।

हम अपने प्रतिस्पर्धी से तबाह कर देने वाली प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं। हमारा प्रतिद्वंद्वी हमसे बेहतर तौर पर इतनी ज्यादा लाइट (रोशनी) पैदा करने का काम कर रहा है कि अपनी बहुत ही कम कीमत के कारण वह हमारे घरेलू बाजार में छा गया है। जैसे ही वह आता है सारे उपभोक्ता उसकी ओर चले जाते हैं और हमारी बिक्री रुक जाती है। फ्रांसीसी उद्योग की अपार विस्तार वाली एक शाखा का कामकाज कम होते-होते ठप पड़ गया है। यह प्रतिद्वंद्वी कोई और नहीं सूरज है। उसने बड़ी बेरहमी से हमारे खिलाफ जंग छेड़ रखी है। हमें शक है कि दगाबाज ग्रेट ब्रिटेन (आजकल गजब की कूटनीति का केंद्र) उसे हमारे खिलाफ भड़काने का काम कर रहा है क्योंकि उसके (सूरज के) मन में उस घमंडी द्वीप के लिए जो सम्मान है वह हमारे लिए नहीं है।

हम तो आपसे बस यही चाहते हैं कि हमारे भले के लिए एक कानून पारित करवा दीजिए कि सभी खिड़कियां, छज्जे, झरोखे, अंदर और बाहर के कपाट, परदे, खिड़की-दरवाजे के फरमे (केसमेंट), जहाजों के दीवारों और छत के रोशनदान बंद करवा दीजिए यानी कि हर छोटी-बड़ी ऐसी दरार, छेद सभी बंद कर दिए जाएं जिससे सूरज की रोशनी हमारे घर या किसी भी स्थान के भीतर प्रवेश कर सके। हमारे भेदभाव रहित उद्योगों को पतन से बचाने के लिए, जिनके बारे में हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि हमने देश को समृद्ध बनाया है और यह देश अगर हमें इस अनुचित जंग के लिए अकेला छोड़ देता है तो यह उसकी कृतघ्नता ही प्रकट होगी।

सम्माननीय राजनीतिज्ञो! भले बनिए, हमारे अनुरोध को गंभीरता से लें और कम-से-कम उन कारणों को सुने बिना इसे खारिज न करें जिन्हें हमें अपने समर्थन में आगे रखना है।

सबसे पहले, यदि आप प्राकृतिक प्रकाश को लोगों तक पहुंचने के यथासंभव सभी रास्ते बंद कर देते हैं तो इससे कृत्रिम प्रकाश की जरूरत पैदा होगी, फिर ऐसे में भला फ्रांस का कौन-सा उद्योग है जो नहीं फलेगा-फूलेगा?

अगर फ्रांस के उपभोक्ता मोमबत्ती बनाने के लिए अधिक चर्बी का इस्तेमाल करेगा तो हमें ज्यादा पशुओं और भेड़ों की जरूरत पड़ेगी और परिणाम यह होगा कि हमारे साफ-सपाट खेतों (पशुओं के चरने से), मांस, ऊन, चमड़े और खास तौर पर खाद में वृद्धि होगी, जो सभी कृषि संपदा के आधार हैं।

अगर फ्रांस ज्यादा तेल का इस्तेमाल करेगा तो हम पोस्त, जैतून और सफेद सरसों की खेती में बढ़ोतरी देखेंगे। मिट्टी को खत्म करने वाले ये महंगे पौधे सही समय पर काम आएंगे ताकि हम पशुपालन से जमीन की बढ़ने वाली उत्पादन क्षमता का भी फायदा उठा सकेंगे।

हमारी बंजर जमीन रेज़िन के पेड़ों से पट जाएगी। मधुमक्खियों के अनेकों झुंड हमारे पहाड़ों से सुगंधित खजाने इकट्ठा करेंगे जबकि आज तक उनकी सुगंध बेकार चली जाती है उन फूलों की तरह जिनसे वह महक पैदा होती है। इस प्रकार, कृषि की एक भी शाखा ऐसी नहीं होगी जो इतनी अच्छी तरह फलने-फूलने से बचेगी।

यही बात जहाजरानी उद्योग (शिपिंग) के लिए भी खरी होगी। हजारों नौकाएं व्हेल मछलियों के शिकार में इस्तेमाल की जाएंगी और कम ही समय में हमारे पास भी एक ऐसा जहाजी बेड़ा होगा जो फ्रांस के सम्मान को बनाए रखने और हस्ताक्षर करने वाले याचिकाकर्ताओं, दुकानदारों आदि की देशभक्ति आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम होगा।

पेरिस के निर्माताओं की खासियतों के बारे में तो फिर कहना ही क्या? इसके बाद आप पाएंगे कि विशाल एम्पोरिया में मोमबत्तियों को रखनेवाले कांसे, क्रिस्टल के और सोने का पानी चढ़े हुए शमादानों, लैम्प, झाड़-फ़ानूसों, चिरागदानों की शानो-शौकत देखते ही बनेगी जिसके आगे आज की दुकानें बेहद मामूली लगेंगी।

चाहे वह रेत के टीलों की ऊंचाइयों पर रेज़िन जमा करने वाला कोई जरूरतमंद हो या फिर खदान की काली अंधेरी गहराईयों में काम करने वाला कोई खनिक, कोई ऐसा नहीं बचेगा जो ज्यादा मजदूरी नहीं पाएगा और बढ़ती हुई समृद्धि का आनंद नहीं उठाएगा।

सज्जनो! इस बात से राजी होने के लिए बस इसे एक बार जरा ध्यान से देखने की जरूरत है कि एनजिन कंपनी के धनी स्टॉकहोल्डर से लेकर माचिस बेचने वाले तक शायद ऐसा कोई फ्रांसीसी नहीं होगा जिसे हमारी याचिका से फायदा नहीं होगा।

सज्जनो! हमने आपकी आपत्तियों के बारे में पहले से सोच कर रखा है लेकिन इनमें से एक भी ऐसी नहीं है जिसे आपने मुक्त व्यापार की हिमायती पुरानी किताबों से न उठाया हो। हम आपको चुनौती देते हैं कि आप हमारे खिलाफ जो भी शब्द कहेंगे वह न केवल आपके खिलाफ पलट आएगा बल्कि आपकी तमाम नीतियों के पीछे मौजूद सिद्धांत को ही चुनौती दे डालेगा।

क्या आप हमें बताएंगे कि, हालांकि हम इस संरक्षण से लाभ पा सकते हैं, फ्रांस को तो बिल्कुल भी लाभ नहीं मिलेगा, क्योंकि इन खर्चों को तो उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा?

इस याचिका के अगले भाग में पढ़िए कि बास्टिएट ने कैसे अपने तर्कों से डेप्यूटीज़ को लाजवाब कर दिया! नयी दिशा का अगला ब्लॉग जरूर पढ़ें-