मोती की खेती- समृद्धि की खूबसूरत पहल

किसानों का रुझान खेती के विकल्प के रूप में मोती की खेती की ओर बढ़ा है। मोती की खेती में लागत कम है और मुनाफा अधिक।

उच्च तकनीक ने आज कृषि की दशा और दिशा बदल दी है। नई-नई तकनीक के चलते खेती में तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं। हमारे किसान भी नए-नए तरीकों को आजमाते हुए खेती में मुनाफा बढ़ा रहे हैं। परंपरागत खेती में तकनीक की मदद से पैदावार तो बढ़ा ही रहे हैं साथ ही खेती के नए विकल्पों की भी तलाश कर रहे हैं। देश में जैविक खेती का चलन जोरों पर है। इनसे आमदनी भी खूब हो रही है। खेती में बढ़ते मुनाफे को देखते हुए किसानों के अलावा दूसरे लोग भी अब बेधड़क व्यावसायिक खेती करने लगे हैं। इसी तरह कई लोग ‘पर्ल फार्मिंग’ यानी मोती की खेती कर रहे हैं जो अपने आप में एक नई पहल है और लगता है कि खेती भी अब मोतियों का खजाना बन गई!

 अन्य रत्नों की अपेक्षा मोती थोड़ा सस्ता होता है, इसलिए यह सर्वसुलभ है और इसकी मांग भी ज्यादा है। इन दिनों मोतियों के गहनों का फैशन है जिस कारण मोती की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। सच्चे मोती खरीदने की हर किसी की हैसियत नहीं होती। मोती का बढ़ता बाजार और मुनाफा देखते हुए कृत्रिम रूप से मोतियों की खेती की जाने लगी है।  इन्हीं में से एक हैं- राजस्थान के सत्यनारायण यादव, जो सीप को पालते हैं और उससे मोती पैदा करके बेचते हैं। इसी तरह महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के संजय गंडाटे भी अपनी वकालत छोड़कर और गुरुग्राम (गुड़गांव) के विनोद कुमार भी अपनी इंजीनियरी की नौकरी छोड़कर मोती की खेती करके लाखों की कमाई कर रहे हैं। इन लोगों से प्रशिक्षण और प्रेरणा लेकर आज कई लोग मोती की खेती करने लगे हैं।

कोई नया व्यवसाय शुरू करने की तुलना में मोती की खेती में कम खर्च आता है। एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 2 लाख का इन्वेस्टमेंट करके सालाना डेढ़ से दो लाख रुपये की आमदनी हो सकती है। मोती की खेती के लिए कम-से-कम 10X12 फुट के तालाब की जरूरत होती है जिसमें एक बार में 5000 से 6000 सीपियों को पाला जा सकता है।

मोती प्राकृतिक रूप से सीप में पाई जाती है। सीप घोंघे का घर होता है। घोंघा नाम का एक जन्तु, जिसे मॉलस्क कहते हैं, अपने शरीर से निकलने वाले एक चिकने तरल पदार्थ द्वारा अपने घर का निर्माण करता है जिसे सीपी कहते हैं। इसके अंदर वह अपने शत्रुओं से भी सुरक्षित रहता है। मोती बनाना भी एक मजेदार प्रक्रिया है। वायु, जल व भोजन की आवश्यकता पूर्ति के लिए कभी-कभी घोंघे जब अपने शेल के द्वार खोलते हैं तो कुछ विजातीय पदार्थ जैसे रेत, कण, कीड़े-मकोड़े आदि उसके खुले मुंह में प्रवेश कर  जाते हैं। घोंघा अपनी त्वचा से निकलने वाले चिकने तरल पदार्थ द्वारा उस विजातीय पदार्थ पर परतें चढ़ाने लगता है।
फिर वह मोती बनकर दुनिया के सामने आता है।

इसी प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से किया जाता है और इसे ही मोती की खेती या ‘पर्ल फार्मिंग’ कहते हैं। अपने देश में सरकारी स्तर पर मोती की खेती को बढ़ावा देने के लिए भुवनेश्वर में ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर’ ट्रेनिंग सेंटर है, जहां निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां से 15 दिनों की ट्रेनिंग लेकर कई किसान परंपरागत खेती छोड़कर अब मोती की खेती करके हर साल लाखों रुपये कमाने लगे हैं।

मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम शरद ऋतु यानी अक्टूबर से दिसंबर का माना जाता है। प्रत्येक सीपी में छोटी-सी शल्य क्रिया करनी पड़ती है। इस शल्य क्रिया के बाद सीपी के भीतर एक छोटा-सा नाभिक तथा मैटल ऊतक रखा जाता है। इसके बाद सीप को इस प्रकार बंद कर दिया जाता है कि उसकी सभी जैविक क्रियाएं पूर्ववत चलती रहें। मैटल ऊतक से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है तथा अंत में मोती का रूप लेता है। लगभग 8 से 10 महीने बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है।

 बाजार में गुणवत्ता के आधार पर इन मोतियों की कीमत 200 से 2000 रुपये तक मिल जाती है। अब तो लोग ग्राहकों की पसंद और डिमांड को देखते हुए डिजाइनर मोती भी बनाने लगे हैं। मोती के अलावा बची हुई सीपों की भी अच्छी-खासी कीमत मिल जाती है क्योंकि इन सीपों से सजावट की चीजें बनाई जाती हैं। इस तरह मोती की खेती में ‘आम के आम और गुठलियों के दाम’ वाला फायदा है।

अगर हमारे देश के किसान खेती में नए-नए प्रयोग करें तो तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे। किसान खुशहाल होंगे और देश समृद्धि की राह पर आगे बढ़ेगा।